जब वोट से पहले गांव खो गया

पहचान की जद्दोजहद में फंसा अस्तित्व का संकट
गंगा में समाया जावनिया, लोकतंत्र में गुम हुई पहचान

मनु कृष्णा की रिपोर्ट
पटना :एक तरफ पूरे बिहार की राजनीति में “पहचान और वोट के अधिकार” की जद्दोजहद जारी है। नेता अपने-अपने सियासी समीकरण गढ़ रहे हैं, जनता पहचान पत्र लेकर कतारों में खड़ी है ताकि लोकतंत्र की ताक़त से अपनी हिस्सेदारी साबित कर सके। लेकिन इसी लोकतंत्र की जमीन पर, गंगा की बाढ़ में डूब चुके भोजपुर जिले का जवाइनिया गाँव अपनी पहचान खो बैठा। ढाई हजार से अधिक की आबादी वाला यह गाँव अब नक्शे पर भी अस्तित्व में नहीं है। मिट्टी, मकान और यादें—सब कुछ गंगा की लहरों में समा गया। लोग अपने घरों की नींव तक ढूँढ़ नहीं पा रहे, और अब उनके वोटर कार्ड पर दर्ज पता भी बदल जाएगा। यानी, जहाँ एक तरफ बिहार की जनता पहचान बचाने की जद्दोजहद में लगी है, वहीं जवानिया के लोगों की सबसे बड़ी पीड़ा यह है कि उनका गाँव ही अब गंगा में समा गया।
बिहार में एक तरफ जहाँ वोट के अधिकार की बहस चल रही है तो दूसरी तरफ उन लोगों की पुकार दब गई है, जिनका अपना ठिकाना ही छिन गया।हम बात कर रहे है बिहार के भोजपुर जिले के जवानिया गाँव की. जो अब सिर्फ इतिहास बन गया है.
गंगा हमेशा से जीवनदायिनी मानी जाती रही है। किन्तु जब वही गंगा प्रलयंकारी रूप धारण करती है, तब उसकी लहरों में न केवल खेत-खलिहान, घर-द्वार और मवेशी बह जाते हैं, बल्कि पीढ़ियों की यादें, विरासत और पहचान भी डूब जाती है। भोजपुर के जिला मुख्यालय से करीब 60 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश की सीमा से लगा जावनिया कोई साधारण गाँव नहीं था। यह पीढ़ियों से बसा एक सांस्कृतिक केंद्र था जहाँ मिट्टी की खुशबू, खेतों की हरियाली, और गंगा के तट पर जीवन का एक अनूठा संगम देखने को मिलता था। लेकिन इस बार गंगा की उफनती धारा ने जावनिया को अपनी गोद में समेट लिया। वह गाँव जो कभी हंसी-ठिठोली, उत्सव और परंपराओं से गूंजता था, आज पानी की अथाह गहराई में मौन है।
गाँव वालों के लिए यह सिर्फ मकानों और खेतों का डूबना नहीं है। यह उनकी स्मृतियों, उनकी मेहनत, और उनकी आत्मा का विस्थापन है। कोई माँ अपने आंगन की नींव खोज रही है, कोई बुज़ुर्ग अपनी पीढ़ियों का वटवृक्ष। बच्चों के खेलने का आँगन, शादी-ब्याह में गूंजने वाले चौक-चौराहे, सब कुछ जल में समा गया।

बिहार की राजनीति इस समय मतदाता सूची पुनरीक्षण (SIR) को लेकर बेहद सक्रिय है। गाँव-गाँव और मोहल्ले-मोहल्ले में लोग पहचान पत्र, आधार, और अन्य कागजात लेकर लाइन में लगे हैं ताकि मतदाता सूची में अपना नाम अंकित करवा सकें। लेकिन इसी बीच भोजपुर जिले का जावनिया गाँव गंगा की भीषण कटान की भेंट चढ़कर मानचित्र से मिट गया। पिछले डेढ़ महीने से कटाव का खतरा लगातार मंडरा रहा था। गाँव के लोग दिन-रात डर के साये में जी रहे थे, लेकिन जब गंगा ने अपनी धारा बदली, तो देखते ही देखते चार सौ से ज्यादा मकान पानी में समा गए। खेत, खलिहान और बाग-बगीचे सब लहरों में बह गए। गाँव का कोई चिह्न तक शेष नहीं रहा।
इस त्रासदी ने सबसे बड़ा सवाल खड़ा किया है—जावनिया के ढाई हजार से ज्यादा मतदाता अब अपने मताधिकार का उपयोग कैसे करेंगे?

देश के एक नामचीन शायर मुन्नवर राणा का एक शेर कि —— तो अब इस गांव से हमारा रिश्ता अब ख़त्म होता है
फिर आँखे खोल ली जाये की सपना ख़त्म होता है…
जवानिया गाँव से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर बांध पर शरण लिए सैकड़ो लोग. जिनके घर नदी में बह गए, वे लोग किसी तरह जान बचा पाए। कागजात, पहचान पत्र और प्रमाण पत्र तो सब बह चुके। गाँव के युवक-बुजुर्ग कहते हैं, “पहले जान की चिंता करें या वोट की? जब घर ही नहीं बचा तो कागज कहाँ से लाते?”
बांध पर शरण लिए एक महिला की पीड़ा और गहरी है—“कटाव हुआ तो हम बाबाधाम गए हुए थे, लौटकर आए तो सब खत्म। घर-खेत कुछ भी नहीं बचा। अब बच्चों के साथ बांध पर रह रहे हैं।”
यह विडंबना है कि जब पूरा प्रदेश SIR की प्रक्रिया में जुटा है, तब जावनिया जैसे आपदा-पीड़ित गाँवों के लिए कोई विशेष शिविर जिला प्रशासन ने नहीं लगाया। कुछ महीने पहले BLO गाँव आई थी और कुछ लोगों का फॉर्म भरा भी गया था, लेकिन अब दस्तावेज़ के बिना प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकती।
गाँव में यादव और भूमिहार की सबसे बड़ी संख्या थी। इसके अलावा ब्राह्मण, बिन्द और गौड़ समुदाय भी बड़ी तादाद में थे। आज सभी एक साथ बांध पर शरणार्थी की तरह जीवन काट रहे हैं। जातीय विविधता और सामाजिक संरचना सबकुछ गंगा की धारा में बह गया।
बड़ा सवाल है की आज जब राजनीतिक दल वोट की राजनीति में व्यस्त हैं, तब जावनिया जैसे गाँवों के मतदाता सबसे बड़े संकट में हैं। क्या प्रशासन इन ढाई हजार से अधिक लोगों को मताधिकार दिलाने की ठोस व्यवस्था करेगा? क्या आपदा पीड़ितों के लिए विशेष पहचान और मतदाता सूची बनाई जाएगी…..
किसानों की फसलें, मजदूरों की रोज़ी, छोटे दुकानदारों की दुकानें—सब बह गए। विस्थापन के बाद अब सवाल केवल छत ढूँढने का नहीं, बल्कि पहचान बचाने का भी है। नई जगह जाकर वे “जावनिया वाले” कहलाएँगे, लेकिन उनके पास अपना जावनिया नहीं होगा।

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