
लोकसभा चुनाव 2024 की तारीखों का ऐलान हो गया है. मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने घोषणा की कि देश में आम चुनाव 7 चरणों में होंगे. यूपी देश का दूसरा इंजन है। अपने आकार और संख्या से यह प्रदेश, देश के किंगमेकर की भूमिका निभाता है। ये बड़ापन खजूरनुमा नहीं है, प्रदेश की छांव दिल्ली दरबार तक कवर करती है। इस चुनाव में भी काफी कुछ तय करने का माद्दा इसी प्रदेश में है। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा हो चुकी है। जंग इस बात की भी होगी कि किसका कद कितना कद्दावर बनकर उभरेगा। जनता की कसौटी पर सभी होंगे। इतना ही नहीं, लोकतंत्र की कसौटी पर मतदाता भी होंगे, क्योंकि उन्हीं पर सारा दारोमदार है। लोकसभा चुनाव के लिहाज से उत्तर प्रदेश देश की सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण राज्य है. यहां से सबसे ज्यादा 80 लोकसभा सीट आती हैं. इसलिए जनीति में कहावत भी है कि यूपी से ही दिल्ली का सफर तय होता है. यूपी भारत में सबसे अधिक लोकसभा सीटों वाला राज्य है 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी (एनडीए) संग यूपी की 80 में से 73 सीटें जीती थीं. बीजेपी 71 और अनुप्रिया पटेल की अपना दल ने दो सीटों पर कब्जा जमाया था, लेकिन 2019 के चुनाव में सपा-बसपा-आरएलडी गठबंधन के चलते बीजेपी का समीकरण गड़बड़ा गया था. ऐसे में बीजेपी गठबंधन 80 लोकसभा सीटों में से 64 सीटें ही जीत सका था. इस तरह से उसने 2014 की जीती अपनी 9 सीटें 2019 में गंवा दी थी. बनारस से चुनाव मैदान में तीसरी बार उतरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ब्रांड वैल्यू का लाभ हर बार की तरह इस बार भी पूरे प्रदेश को मिलने की भाजपा उम्मीद लगाए है, तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तेजतर्रार कार्यशैली और यूपी की इमेज ब्रांडिंग की छाप भी प्रचार में सबसे ऊपर रहेगी। सरकार व संगठन काफी हद तक इन दो सिक्कों के सहारे है। चुनावी नैया के सबसे बड़े खेवैया यही दोनों हैं। यही वजह है कि दोनों ने फरवरी से ही चुनाव प्रचार जैसे कार्यक्रम शुरू कर दिए। योगी ने तो चुनाव की घोषणा के पहले तक लोकार्पण-शिलान्यास कर आक्रामक प्रचार रणनीति का अहसास करा दिया। मुद्दों की कड़ाही में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) नया छौंक है। चुनावी खिचड़ी इससे चटपटी हो ही गई है . अयोध्या के राम मंदिर के भक्ति-भावपूर्ण माहौल के बीच सीएए को शेर की दहाड़ की तरह लागू करने का एलान प्रदेश में चुनाव को नई बिसात पर ले जा रहा है।
भले ही विपक्षी गठबंधन इंडिया चुनावी तैयारियों में पिछड़ता दिख रहा हो, लेकिन लगता है सत्तापक्ष के आगे चुनौतियां पेश करने में पीछे नहीं रहेगा। पुराने आजमाए हथियार-पुरानी पेंशन, सरकारी भर्ती परीक्षा के तौर तरीके, किसानों की आय व फसलों की वाजिब कीमत जैसे उसके मुद्दे भाजपा गठबंधन को घेरते दिखेंगे। निजी निवेश के आकड़ों पर खड़े सवाल परेशानी का सबब बन सकते हैं। जातियों को साधने की भाजपा की रणनीति को कांग्रेस की सामाजिक न्याय की मुहिम और सपा की पीडीए की टेर से चुनौती मिल सकती है। नाराज सरकारी कर्मचारियों पर भी विपक्ष डोरे डालता दिख रहा है। एक खास बात, तीन साल बाद के विधानसभा चुनाव की प्रस्तावना भी लिखेगा ये चुनाव। अखिलेश के आगे दरकती पार्टी को संभालने की चुनौती है। लगातार दो हार के बाद इस संसदीय चुनाव में कार्यकर्ताओं के मनोबल को बनाए रखने लायक नतीजे न आए तो अगले विधानसभा चुनाव में चुनौती और बड़ी हो जाएगी। कांग्रेस के पास तो खैर खोने के लिए कुछ खास है भी नहीं। बसपा की अपनी अलग और अनूठी चाल है, वो वैसी ही रहने की उम्मीद है। उसका अपने काडर वोटर पर से भरोसा अभी उठा नहीं है।
आम चुनाव में नेतृत्व या चेहरा अहम कारक रहा है। जिस दल या गठबंधन का चेहरा जितना मजबूत व लोकप्रिय, उसे उतना ही लाभ। मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग है, जो दलों या गठबंधन का नेतृत्व करने वाले चेहरे के आधार पर फैसला करता है। नेहरू, इंदिरा, वीपी सिंह, वाजपेयी से लेकर वर्तमान में मोदी तक। यह फेहरिस्त लंबी है। हालांकि, ऐसे कई अवसर भी आए, जब चेहरे के सवाल को पीछे छोड़ मतदाताओं ने सत्तारूढ़ दल या गठबंधन के खिलाफ नाराजगी जताते हुए चेहरे को महत्व नहीं दिया। नब्बे के दशक से वर्तमान सदी के पहले दशक तक गठबंधन सरकारों के दौर में ऐसे कई उदाहरण सामने आए। 2014 से एक बार फिर से नतीजे तय करने में चेहरे की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। इस बार राजग का चेहरा फिर से पीएम मोदी हैं। देखना दिलचस्प होगा कि मतदाता इस बार चेहरे को अहमियत देते हैं या दूसरे कारक को।