
दुनिया भर के कई देशों में, लोकतंत्र और राजनीतिक हिंसा एक-दूसरे का अभिन्न हिस्सा हो सकते हैं. यहां तक कि दुनिया के सबसे आधुनिक लोकतंत्र भी इस बुराई से बचे नहीं हैं. भारत जैसे युवा लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक हिंसा आमतौर पर चुनावी राजनीति से जुड़ी होती है, और कई मौक़ों पर यह कई चरणों में घटित होती है. उदाहरण के लिए बिहार, उत्तर प्रदेश और केरल जैसे राज्यों में चुनावों के दौरान राजनीतिक हिंसा का बहुत लंबा इतिहास है. पश्चिम बंगाल की तो तस्वीर ही अलग है. लंबे समय से उग्रवाद, सामाजिक उथल-पुथल, बड़े पैमाने पर पलायन और राजनीतिक नियंत्रण के लिए हिंसक भीड़ के इस्तेमाल जैसी घटनाओं से घिरे इस पूर्वी राज्य में राजनीतिक हिंसा की संस्कृति अन्य भारतीय राज्यों की तुलना में कहीं अधिक स्थानिक लगती है..
लोकतंत्र और हिंसा के बीच एक सहजीवी संबंध है, और यहां तक कि दुनिया के सबसे परिपक्व लोकतंत्र भी इसे पूरी तरह से ख़त्म करने में असमर्थ रहे हैं. उदाहरण के लिए, 1980 के दशक के अंत से लेकर 2000 के दशक के बीच, पश्चिमी यूरोपीय देशों जैसे ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैंड, इटली और जर्मनी में वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों चरमपंथी समूहों द्वारा राजनीतिक हिंसा की गतिविधियों को अंजाम दिया गया.
बहरहाल, पश्चिम बंगाल के संदर्भ में हिंसा राज्य के राजनीतिक इतिहास और राजनीतिक संस्कृति से भी जुड़ी हुई है. इस अध्ययन के अनुसार राज्य में हिंसा की मौजूदा प्रकृति को पूरी तरह से ‘राजनीतिक’ कहा जा सकता है,[ क्योंकि हिंसा का इस्तेमाल मुख्य रूप से राजनीतिक सत्ता पर कब्ज़ा जमाने और उस पर अपनी पकड़ बनाए रखने किया गया है. यह भारत के अन्य राज्यों में हिंसा से अलग है, जिसमें सामाजिक-सांस्कृतिक, वैचारिक या आर्थिक कारक बड़े पैमाने पर राजनीतिक ध्रुवीकरण के कारण हैं. हिंसा का यह रूप पश्चिम बंगाल को देश के अन्य राज्यों से स्पष्ट रूप से अलग करता है. 2021 की नवीनतम एनसीआरबी रिपोर्ट के अनुसार, पश्चिम बंगाल में देश में सबसे अधिक राजनीतिक हत्याएं हुई हैं और केरल, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में हिंसात्मक गतिविधियों के दरें उल्लेखनीय हैं. संख्या के आधार पर देखें तो सबसे ज़्यादा हत्याएं उत्तर प्रदेश और बिहार में हुई हैं. राजनीतिक हिंसा पर टाइम्स ऑफ इंडिया की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन दशकों में केरल में 200 से अधिक राजनीतिक हत्याएं हुई हैं, जिसके पीछे वाम दलों और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच पितृ संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के बीच प्रतिद्वंद्विता है. पश्चिम बंगाल की तरह की किसी राजव्यवस्था में, जहां का समाज दलगत राजनीति के आधार पर बंटा हुआ हो, वहां हर दल एक-दूसरे को ‘दूसरा/बाहरी/दुश्मन’ की तरह देखते हैं. हर दल में इस बात का स्पष्ट रुप से डर है[ कि यदि प्रतिद्वंद्वी पार्टी सत्ता में आती है, तो उसके कार्यकर्ता उन पर हिंसा करेंगे, साथ ही वसूली से मिलने वाले मौजूदा लाभों को छीन लेंगे. इसके अलावा, राजनीतिक दल अक्सर दूसरे राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं पर हमला करने और डराने के लिए बेरोज़गार युवाओं का इस्तेमाल करते हैं.[ अपनी सुरक्षा और भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए राजनीतिक दलों के ग्रामीण कार्यकर्ताओं को प्रतिद्वंदी दल के कार्यकर्ता को दबाना पड़ता है, जिसके लिए वे अक्सर हिंसा का सहारा लेते हैं. चूंकि राजनीतिक दलों के प्रति निष्ठा अभी तक सबसे प्रमुख सामाजिक पहचान है, अन्य सभी सामाजिक विभाजन जैसे कि जातिगत पूर्वाग्रह, वर्ग संघर्ष और सांप्रदायिक कट्टरता आदि को दलों की आंतरिक लड़ाईयों की भाषा में व्यक्त किया जाता है. बंगाल में होने वाली हिंसक घटनाएं दलगत हितों से प्रेरित हैं, जो राज्य की सत्ता पर कब्ज़ा जमाने और विरोधियों पर पूर्ण राजनीतिक अधिपत्य स्थापित करने के मकसद से अंजाम दी जाती हैं. जीतने लंबे समय से यह संस्कृति कायम रही है, उसकी मिसाल भारत में कहीं और नहीं मिलती. इसकी शुरुआत आज़ादी से पहले से हुई और तब से लेकर अब तक पिछले सात दशकों से यह संस्कृति अस्तित्व में है.
राजनीतिक हिंसा के इस सर्वव्यापी और व्यवस्थात्मक स्वरूप ने राजनीतिक भागीदारी और राजनीतिक समानता जैसी लोकतांत्रिक गतिविधियों के आगे बाधाएं खड़ी की हैं. बंगाल में राजनीतिक हिंसा के मौजूदा स्तर और उसके स्वरूप में सुधार लाने के लिए संस्थागत सुरक्षा उपायों, कानूनी सुरक्षा, चुनावी व्यवहार और राजनीतिक संस्कृति में किस तरह के बदलावों की आवश्यकता है, इस पर बहस की ज़रूरत है