डैमेज कंट्रोल होगा या फिर होगा 2015 वाला हाल

बिहार चुनाव विश्लेषण – न्यूज़ बॉक्स के लिए मनु कृष्णा
बिहार में चुनावी बिगुल बज चुका है, लेकिन चर्चा अब सिर्फ मुद्दों पर नहीं- संविधान पर भी हो रही है। संघ ने ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्दों को संविधान से हटाने की बात कही है।और इसको लेकर विपक्ष हमलावर है। सवाल है — क्या इससे बीजेपी को वही नुकसान होगा जो 2015 में हुआ था?
उल्लेखनीय है कि संघ के बयान के फौरन बाद बीजेपी बचाव की मुद्रा में आ गई। शीर्ष नेताओं ने चुप्पी साध ली, बाकी नेताओं ने फोकस कांग्रेस की इमरजेंसी पर शिफ्ट कर दिया। हालाकि बिहार में विपक्ष की भूमिका में बैठा महागठबंधन ने इस मुद्दे को लपका ही नहीं बल्कि उसे चुनाव तक ज़िंदा रखने की
भी बात कही है। आरजेडी का आरोप है कि ये बीजेपी की असल सोच है जो अब सामने आ गई है। इन्हें संविधान से दिक्कत है। समाजवाद – धर्मनिरपेक्षता चुभती है। बिहार की जनता जवाब देगी।
गौरतलब है कि 2015 में भी मोहन भागवत के आरक्षण पर बयान ने बीजेपी को भारी नुकसान पहुंचाया था। संघ में इस बयान के बाद, 2015 में महागठबंधन को 178 सीटें मिलीं-जबकि बीजेपी को महज़ 53 पर ही संतोष करना पड़ा। उस वक्त भी बीजेपी ने डैमेज कंट्रोल किया था, लेकिन नतीजा उसके खिलाफ गया। राजनीति के जानकारों की माने तो ऐसे मुद्दे सामाजिक न्याय आधारित वोटर्स को प्रभावित करते हैं मसलन ओबीसी, दलित और अल्पसंख्यक वर्ग। और बिहार में यही वर्ग निर्णायक है। बीजेपी के सफाई देने से ज़्यादा मायने रखेगा कि जनता उस पर कितना भरोसा करती है।
यहाँ ये भी उल्लेखनीय है कि बीजेपी ने कहा कि वह संविधान के मूल ढांचे के साथ है। पार्टी प्रवक्ताओं का तर्क है कि ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ जैसे शब्द इमरजेंसी के दौरान जोड़े गए थे और कांग्रेस ने ही संविधान के साथ खिलवाड़ किया। जबकि बीजेपी संविधान का सम्मान करती है। लेकिन कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसने रातोंरात संविधान में बदलाव किए।
अब देखना ये होगा कि संघ का बयान और बीजेपी का इस मुद्दे पर सीधे ना आकर इमरजेंसी के ज़रिए, इंदिरा गांधी द्वारा किए गए कृत्यों पर विपक्ष को घेरना – वोटरों को क्या संकेत देगा, ये आने वाले समय में साफ़ हो जाएगा। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि चुनावी मौसम में संविधान पर बहस, सिर्फ बौद्धिक विमर्श है या राजनीतिक समीकरणों को बदलने की चाल !